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हाइकू / तारकेश्वरी तरु 'सुधि'

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गलती करे
मानवीय स्वभाव
हर्जाना भरे।

कैसा घमंड
प्रभु के दर पर
सभी याचक।

गले में प्यास
ठहर गई आकर
श्रम बेबस।

बसन्त आया
प्रसून आनंदित
फैली खुशबू।

उड़ा परिंदा
तन्हा-सा तरुवर
पात उदास।

रौंदते पैर
अस्तित्व दूब का
कैसा उल्लास।

युवा भ्रमित
नशे की जकड़न
छिना विवेक।

सिसकी धूप
गल गई जमीन
सर्दी के मारे।

क्रुद्ध रजनी
जमा गई धरती
उसकी फूंक।

जर्दा तम्बाकू
गिरी पिचकारियाँ
नहीं गुलाल।


तार से तार
जुड़कर मन के
खोलें रहस्य।

शब्दों से भाव
बनकर कविता
देते राहत।

सभी जानते
भावना बुद्धि पर
करती राज।

आँखों में आए
सुनहरे सपने
पंख लगाए.

कड़वे बोल
बनते तलवार
पहले तोल।

धुँआ-धुँआ है
शहर का मौसम
कुछ हुआ है।



छूकर मन
चुपके से गुजरा
नन्हा स्वप्न।

इठलाती है
मनमौजी लहरें
पास आकर।

भरें मन मे
उम्मीद की किरणें
नई उमंग।

मेरे ये ख्वाब
मेरी है मिल्कियत
एतराज क्यों?

चाय के संग
उबालती विचार
औरतें रोज।

दूर गगन
उड़ता पल भर
पंछी-सा मन।

बदलेगा ही
फ़ितरत ठहरी
है तो वक्त ही।