यादों की मिट्टी पे
जब भी पलकों का
पानी गिराया ...
खुशबू ही आयी है
सौंधी-सौंधी सी ...
वक्त बीतता गया
मिट्टी पड़ने लगी
कैड़ी....
आने लगी
गहरी तरेंड़ें...
मिट्टी के वजूद में।
फिर ?
फिर पलकों का पानी
पर्याप्त नहीं रहा....
सूखी मिट्टी के लिए ।
गहरी हुई तरेड़ों में
कहीं गुम होने लगा...
पलकों का पानी ।
फिर ?
फिर वक्त और
बीतता गया...
बंजर होने लगी
यादों की मिट्टी...
और सूख गया
पलकों का पानी ...
सब बंजर हो गया
आखिर ।
यादें भी पलकें भी ।
कुछ लोग इसे
संवेदनाओं का
अकाल भी कहते है
ठीक से तो नहीं पता
पर शायद
आपातकाल की स्थिति है
किसी भी इंसान के
वजूद की ये ...।