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इधर के दिन / इधर कई दिनों से / अनिल पाण्डेय

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अब इधर के दिन
नहीं हैं प्रेम के
घृणा के दिन भी नहीं रहे
इधर के दिन

देखने के दिन हैं इधर
प्रेम और घृणा से उपजे
अंतर्द्वंद्व के
समझने के दिन हैं इधर
पसन्द और नापसंद के

सुनो तो कुछ कहूँ...
बोलना छोड़ दिया हूँ इधर के दिन
सुनने की आदत होती जा रही है अधिक
बधिक बन इच्छाओं के
अभिलाषाओं के खून कर रहा हूँ मैं

यह फिर भी मानकर चलो
अँधेरे में भटकने जैसा
कुछ भी नहीं है इधर
उजाले की तलाश में
दीपक की खोज कर रहा हूँ इधर