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लीची गाछ / अरविन्द पासवान

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एक शाम टहलते हुए अपने गाँव में
हम पहुँच गए जानी-पहचानी जगह पर
जो बड़ी मुश्किल से पहचानी जा रही थी
वह खींच रही थी अपनी स्मृति में हमें... और हम उसे
स्मृति की यादों में डूबते हुए
याद आया-- लीची गाछ; याद आए रामजी दा, बच्चे
और बचपन के दिन

लीची गाछ
जिसे अगोरते थे रामजी दा
न केवल जेठ की दुपहरी में, बल्कि
पूस की रात में भी बड़े अरमान से

और बच्चे
जिस लीची गाछ की लच-लच डाल पर
खेलते थे डोलपात, उछल-कूद करते थे बानरों की तरह|

मैं उनसे करता सवाल--
कि रामजी दा
जब नही है लीची का सीजन
क्यों जान देते हो मुफ़्त में
इस कड़ाके की ठंड में!

उनका सहज जवाब होता--
जिंदगी केवल लाभ-हानि से नही चलती
चलती है प्रेम से, स्नेह से
नेह की सासों से
धरती के सजीवों-निर्जीवों के सहयोग-साहचर्य से
इसलिए
फलों से ज्यादा ज़रूरी है पेड़ों को बचना

क्योंकि
जब पूस, माघ की गहन ठंड में
लगती है गरीबों के पेट में आग
तो वे
पेट की आग सह जाते हैं खुदा की देन समझकर
लेकिन
उनके तन-बदन लगते हैं गलने
बर्फ़ीली हवा से
जो असहनीय होता है उनके लिए

फिर
गहन ठंड से लड़ते-जूझते
वे निकाल पड़ते हैं अपने झोपड़ियों, तम्बूओं और सिरकियों से
अपने अस्तित्व को बचाने
और काट डालते हैं
अपने ही जीवन की सासों को

यानी गाछों को!

इसलिए
जीवन के अस्तित्व के लिए
ज़रूरी है गाछों को बचाना

ज़रूरी है इसलिए भी कि
बच्चे खेलें लच-लच डाल पर
डोलपात|

और आज
मन कुहक उठता है
उस जगह को देखकर
कि अब न लीची गाछ रहा
न रहे रामजी दा
 
अब यहाँ केवल
कंक्रीट के जंगल का घना अंधकार और सन्नाटा पसरा है