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चलो / कुमार मंगलम

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चलो
कि चलने का वक्त है

चलो की चलते जाना है
चले चलो कि
मंजिल अभी नहीं आयी है

राह है कि पता नहीं
पर चलो

चलो पर देखो कि
जिस राह पर चल रहे हो
वह किस ओर जाती है

हत्या हो तो चलो
मर जाओ तो चलो
चलो जब झूठ अपनी सारी हदें पार कर जाये
चलो किसी मृतकभोज में
चलो किसी उत्सव में और दो कौर उठाओ

चलते चलो कि मंजिल करीब नहीं
तुम्हारे उद्धार के लिए कोई भागीरथी नहीं
चलो चलो कि
चलते चले जाना है
मर जाना है
जीते जीते
या मरते मरते भी चले जाना है

चलो कि हमारी कोई मंजिल नहीं
बस चलो.

हवा से चलते-फिरते माँग लिया एक श्वांस
आग से थोड़ी गर्मी मांग ली
अन्न से माँग लिया भोजन
फल से थोड़ा सा हिस्सा ले लिया उधार
और फूल से गंध

जीवन में जीते हुए
दुराशा से मांग ली थोड़ी लापरवाही
प्रत्याशाओं ने घेरा
और मुझे अकर्मण्य बना दिया

पहाड़, नदियाँ, प्रकृति आदि ने
मुझे दिया खुलेपन का उपहार दिया
मैं यूँ ही जीता गया
परजीवी होकर, उधार का खाया
उधार का जिया
उधार का हिसाब बन गया समंदर
एक दिन समंदर के लहर ने
दरवाजा खटखटाया
और कहा मेरे उधार को चुकता करो

कैसे चुकता करता
दुब की नोक भर हरियाली
दिए का टिमटिमाता प्रकाश
अंधेरे के गान का शोर
उजास की शांति
यह मेरे अकेलेपन, असमंजस की कथा
अकुलाहट में सहम कर चुप हुआ

बंद हुए सब दरवाजे
हर आहत का खटका
सूदखोर के आने का संकेत

यूँ भाग-भाग और डर-डर कर
उधार हुआ अपना जीवन
मैं रहा कृतघ्न
मैं मरा अकेले
प्यार विहीन

उस उधार के बदले
दे देता…