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रूपासक्ति / महेन्द्र भटनागर

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सोने न देती सुछवि झलमलाती किसी की !

जादू भरी रात, पिछला पहर
ओढ़े हुआ जग अँधेरा गहर
भर प्रीत की लोल शीतल लहर

सूरत सुहानी सरल मुसकराती किसी को !

गहरी बड़ी जो मिली पीर है
निर्धन हृदय के लिए हीर है
अंजन सुखद नेह का नीर है

अल्हड़ अजानी उमर जगमगाती किसी की !

रीझा हुआ मोर-सा मन मगन
बाहें विकल, काश भर लूँ गगन
कैसी लगी यह विरह की अगन

मधु गन्ध-सी याद रह-रह सताती किसी की !