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प्रिया से / महेन्द्र भटनागर

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इस तरह यदि दूर रहना था,

तो बसे क्यों प्राण में ?

है अपरिचित राह जीवन की
साथ में संबल नहीं ;
व्योम में, मन में घिरी झंझा
एक पल को कल नहीं,
यदि अकेले भार सहना था ;

तो बसे क्यों ध्यान में ?

जल रही जीवन-अभावों की
आग चारों ओर रे,
घिर रहा अवसाद अन्तर में
है थका मन-मोर रे,
इस तरह यदि मूक दहना था

तो बसे क्यों गान में ?
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