हाँ लिखा भी था तुम्हे
एक दिन
जीना चाहती थी मैं-
ज्यादा कुछ तो मांगा ही नही था
बस चंद सांसें
उधार वो भी...
खैर कोई बात नही
तुम्हारी ज़रूरतें ज्यादा है
मुझसे
मै नही समझ सकी कि
तुम्हें चाहना
टूट कर चाहना भी
आहत कर जायेगा
मज़बूर कर देगा तुम्हे
मुझसे हटकर सोचने के लिये-
दीमक भी पूरा नही चाटती
ज़िंदगी दरख्त की
तुमने क्यों सोच लिया
कि “मै” वजह बन जाऊँगी
तुम्हारी साँसो की घुटन
तुम्हारी परेशानी की-
और तुम्हें तलाश करनी पड़ेगी वजहे-
गोरख पांडॆ की डायरी या फिर
परवीन शाकिर के चुप हो जाने की
ये सच है मै जीना चाहती थी
तुमसे मांगी थी चंद साँसे
उधार वो भी...