Last modified on 13 अगस्त 2008, at 01:29

रात भर / महेन्द्र भटनागर

Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:29, 13 अगस्त 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेन्द्र भटनागर |संग्रह=संतरण / महेन्द्र भटनागर }} रात ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

रात भर सन्-सन् पवन
फूस की छत और माटी की दिवारों से
शराबी की तरह
करता रहा मदहोश आलिगन !

रात भर सन्-सन् पवन !

डोलती दहशत रही भीतर कुटी के,
चार आँखें
रतजगा करती रहीं भीतर कुटी के,
तम बरसता ही रहा
पर,
घिर न पाया एक पल
आशा भरा भावी उषा-जीवन !

रात भर
गरजा किया सन् सन् पवन !