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दोहरी भूमिका / साधना जोशी

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मैं नहीं तुम नहीं
हजारों नारियों का समूह
चार दिवारी से वाहर निकली है,
किन्तु उस परिधि को लांघ कर नहीं
उसका द्वारकों खोल कर ।

खुली हवा में सुगन्ध भी है
किन्तु तुफान आने का भय भी,
नदियों की फुहारें भी है
किन्तु बाढ़ में खौफ भी
सूरज की किरणों की गरमाहट भी है
तप्ती धूप में झुलसने का डर भी ।

राहे लम्बी है गहरी खाइयाँ
पत्थरीली जमीन पर
कोमल पद से चलना सम्भव नही,
डोरियां बंधी है खूंटो से
एक नही, दो नहीं, अनेकों जिनका बंधना भी जरूरी है ।
डोर ढीली न पड़े,
जीवन का ताना-बाना बिगड़ जायेगा,
और डोरियों से बंधे हैं कई लोग
जिनके हम केन्द्र बिन्दु हैं

जिन्दगी के पैरासूट को ऊँचाईयों तक
ले जाना है अपनी उड़ान के साथ
औरों को भी बढ़ाना है ।
उड़ता हुआ ये अम्बर में सुन्दर
दिखा रहा है मन सेे हर पल
गिरने का भय भी बना है ।

षिक्षक, डॉक्टर, इन्जीनियर, यहाँ तक कि राश्ट्रपति,
न जाने कितनी उपलब्धियों से
संजोयी जायेगी हम सब,
किन्तु उन सब के मूल में बैठी होगी
एक बेटी, एक बहू, एक माँ
एक दादी, एक नानी ।

आधार बिन्दु बने हैं एक घर के लिए
दोहरी भूमिकाओं को निभाने का साहस करना है ।
कमर झुका कर नहीं सिर उठाकर चलना है ।
सम्भव है यह सब भी जब जोष, उतसाह,

कर्मठता,आषा,कर्तव्यनिश्ठता स्वस्थता
दृढता,धर्म,इमान हमारे साथी बन जायें
हमारे अस्त्र,षस्त्र बन कर ये
हमें षक्ति रूपा बना दें ।

आयेगा वो दिन सबके जीवन में
जिसकी उम्मीद संजोकर वह चलती है
गिरती है, संभलती है आगे बढ़ती है
अंधेरी रात बीतेगी
नई सुबहा आयेगी सूरज निकलेगा
ठंडी हवाओं के साथ ।

मुस्कान आयेगी हमारे चेहरे पर
मायूसी की नई कामयाबी की,
दोहरी भूमिका दुगुनी षक्ति भरेगी
जीवन में बहारे लौट आयेगी,
पायल की झनकार में विजय की ललकार होगी
चलो मायालें लेकर चले,
हमें अधिंयारा मिटाना है,
धरती मां में रोषनी के लिए
असख्यं दीपक जलाने हैं ।