Last modified on 18 जुलाई 2019, at 10:42

भारी हवा / मंगलेश डबराल

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:42, 18 जुलाई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मंगलेश डबराल |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

आततायियो ! तुम्हारे लिए यहाँ कोई जगह नहीं है ।
शासको ! यहाँ कोई सिंहासन नहीं, जिस पर तुम बैठ सको ।
हाकिमो ! तुम्हारे लिए कोई कुर्सी ख़ाली नहीं है ।
ताक़तवरो ! तुम यहाँ खड़े भी नहीं रह पाओगे ।
लुटेरो ! तुम इस धरती पर एक क़दम नहीं रख सकते ।
जालिमो ! यहाँ एक भी ऐसा आदमी नहीं
जो तुम्हारा ज़ुल्म बर्दाश्त कर पाएगा ।
घुसपैठियो ! आखिकार तुम यहाँ से खदेड़ दिए जाओगे ।
आदमखोरो ! तुम कितनी भी कोशिश करो
मनुष्य को कभी मिटा नहीं पाओगे ।

यही सब कहता हूँ किसी उधेड़बुन और तकलीफ में
आसपास की हवा लोहे सरीखी भारी और गर्म है
शाम दूर तक फैला हुआ एक बियाबान
जहाँ कोई सुनता नहीं, सुनकर कोई जवाब नहीं देता
शायद सुनती है सिर्फ़ यह पृथ्वी और उसके पेड़,
जो मुझे लम्बे समय से शरण दिए हुए हैं ।
शायद सुनता है यह आसमान जो हर सुबह
हल्की सी उम्मीद की तरह सर के ऊपर तन जाता है ।
शायद सुनती है वह मेरी बेटी,
जो कहती रहती है — पापा ! क्या आप मुझसे कुछ कह रहे हैं ।