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पंख छुअन / संजय पंकज

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जिस दिन से छूटी तितली की
नरम नरम पंख छुअन,
लगे रेंगने बिच्छू तब से
तन मन धड़कन-धड़कन

फुलवारी छूटी तो गमलों में
आ बैठी नागफनी
छूट गई पगडंडी पर वह
 हँसी सुनहरी बनी ठनी

खुशबू छूटी खुशी गई फिर
तिर आई चुभन चुभन!

गलियों सड़कों चौराहों पर
लोग खड़े हैं बने ठने
कपड़ों में भी नंगे हैं सब
इक दूजे पर तने-तने

प्रीत प्यार की भाषा छूटी
रुधिर भरे नयन नयन!

चलने पर उभरे आते हैं
दर्द पुराने सारे ही
जिधर जिधर भी कदम बढ़ाऊँ
मिलते हैं अंगारे ही

बाहर हँसती बड़ी इमारत
भीतर है रुदन रुदन!