उम्र के बीस साल तक वह
झल्लाए हुए कुत्ते की तरह सनका रहा
हर चोर-उचक्के पर
भौंकता हुआ,
लोगों को वह पसन्द नहीं था ।
उम्र के तीस साल में
हर मोड़, हर नुक्कड़ पर
चीख़ा
चिंचियाता फिरा
जुलूस के आख़िरी छोर पे,
मसल डाला कितने ही
सिगरेट के टुकड़ों को
बड़ी बेरहमी से
बुर्ज़ुआ की गर्दन की तरह,
अब लोग उससे कट-से गए ।
उम्र के चालीस साल में
वह
सिर्फ़ अब बुदबुदाता रहता है
अपने-आप में ही
सड़क के किनारे
धूल में नज़रें गड़ाए,
उसकी आँखों में एक
गहरी रिक्तता
और ख़ामोशी है;
फटी-फटी आँखों से
शायद ख़ुद को
कोसता मर गया वह
एक दिन
और लोग ख़ुश हैं,
सामान्य एक आदमी को
असामान्य बनाकर
मार डालना
हमारी उपलब्धि है ।