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कल रात / महेन्द्र भटनागर

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कल रात ज़रा भी तो नींद नहीं आयी !

सूनी कुटिया थी मेरी सूना था नभ का आँगन,
केवल जगता था मैं, या जगता विधु का भावुक मन ;
प्रतिपल बढ़ती थीं ज्यों ही जिसकी किरणें बाहें बन,
बढ़ती जाती थी रह-रह जाग्रत अन्तर की धड़कन ;
ना मद से बोझिल ये अँखियाँ अलसायीं !

स्वयं निकल कर स्वप्न-कथा की बढ़ती थीं घटनाएँ,
उड़ जाती थीं शैया पर नव-परिमल-अन्ध-हवाएँ,
लहर-लहर कर अँगड़ा कर जागीं सुप्त भावनाएँ,
निशि भर पड़ी रहीं चुपचुप मन को अपने बहलाए,
उन्मादी-सी बन न क्षणिक भी शरमायीं !

बिखर कभी कच वक्षस्थल पर उड़-उड़ लहराते थे,
या कि कभी सज-गुँथ कर दो वेणी लट बन जाते थे,
कमल-वृंत पर कभी भ्रमर अस्फुट राग सुनाते थे,
कोमल पत्ते बार-बार फूलों को सहलाते थे,
बनती मिटती रही अजानी परछाईं !
सच, कल रात ज़रा भी नींद नहीं आयी !