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विरह / मृत्युंजय

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हिंसा के इतने गहरे घाव हुए टाँके नामुमकिन
जर्राह हमारी आत्मा के ऊँघे से दिखते हैं
चहुँओर शोर है चाकू के तीखेपन का, तेज़ी का
जम्हूरी बूचड़खाने में सौ सपने बिकते हैं

शिशुओं की नरम हथेली झुलस रही इस भगदड़ में
जीवन के तार तने इतने अब टूट गए
इतिहास समन्दर लहराया नावें ग़ायब
जो ताने-बाने थे भविष्य के छूट गए

तब भी धरती है घूम रही लेकर पवित्र इच्छाएँ
वह दूर देखती दर्द सम्भाले जाती है
यह दर्द ढलेगा चीरेंगे दुख झूठ-पाट
इसलिए विरह के गीत सुनाती जाती है