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मेरी जिन्दगी / ईशान पथिक

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हाँ नही बस देती है इनकार मेरी ज़िन्दगी
फूल मांगूं देती है बस खार मेरी ज़िन्दगी

कुछ नही बस चंद बरसों ही है गुज़री उम्र यह
फिर भी लग रही है मुझको भार मेरी ज़िन्दगी

हूँ कांच का मैं आईना सब देखते हँस कर मुझे
फिर टूटती छन्नाक से हर बार मेरी ज़िन्दगी

नफरतों की आंधियों में दीप सा जलता रहा
मांगती है चाहती है प्यार मेरी ज़िन्दगी

ना तो ये करती है कुछ ना ही सुनती है मेरी
बन गयी ज्यों देखिए सरकार मेरी ज़िन्दगी

सांस भी लेता हूँ तो है काटती पल पल मुझे
खंजरों पर लेटा हूँ है धार मेरी ज़िन्दगी

जोरकर सपनों को अपने था बनाया इक सितार
और बन बैठी है टूटी तार मेरी ज़िन्दगी

ढूंढता हूँ ज़िन्दगी की अब कहानी ऐ "पथिक"
कब तलक बनकर रहे अखबार मेरी ज़िन्दगी