Last modified on 24 जुलाई 2019, at 13:24

स्वप्न पर्व / अमरेंद्र

Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:24, 24 जुलाई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमरेंद्र |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

खुली हैं कर्ण की आँखें, निकट के दृश्य ओझल हैं,
अगोचर, जो नजर से दूर हैं वे स्वप्न कल्पित;
किसी की है प्रतीक्षा में, नहीें इसकी भी सुध है कुछ,
बहुत ही दूर चम्पा से सभी कुछ दृष्टि में शिल्पित।

कभी तो बहुत जड़वत, देह में सिहरन नहीं कुछ भी,
कभी तो हो उठे चंचल अधर द्वय, कुछ कहेंगे अब;
मुदा मन चुप कहाँ है, बोलता ही जा रहा है वह,
पता कुछ चल सका न हस्तिपुर पहुँचा था कैसे कब?

कई रंगों में डूबा है बहुत ही आज हस्तिनपुर,
गुलाबी हो रही है, पारदर्शी अब हवाएँ हैं;
सरोवर-झील का पानी अमिय-सा हो रहा मीठा,
विचरते ये कहाँ से श्वेत नीले मेघ आए हैं!

खड़े हैं वृक्ष ओढ़े रेशमी पट स्वर्णकिरणों के,
सजाया मेंहदी से अंग अपना है लताओं ने;
वनों की पत्तियों ने गीत गाए हैं गले लगकर,
गुँजाया है गगन को हारिलों से मिल सुआऊँ ने।

हुई है नीति-नय की जीत लौटे हस्तिपुर पांडव,
हुआ निर्णय है खांडव वन मिलेगा पांडवों को अब;
विदुर, कृप, द्रोण भी खुश हैं, कहीं से कुछ तो अच्छा है,
बहुत आसान होगा झेलना बाकी दुखों को अब।

किसी से कम नहीं संतोष है राधेय के मन में,
सुयोधन को मनाया, तो कहीं राजी हुआ है वह;
मिली है पांडवों को मुक्ति अब वनवास के दुख से,
खुले सीपी के मुँह में स्वातिरस जैसे चुआ है अब।

हुआ जैसे हो, आखिर टल गया है युद्ध भारी,
यही सब सोचकर है कर्ण को भारी खुशी मन से;
" किया संतोष लेकर पांडवों ने वन सघन पाकर,
कहाँ कुछ घट गया है कौरवों का इस घटे वन से?

" भटकती थी वनों में द्रौपदी-कुन्ती उठाये दुख,
मिलेगी अब दुखों से मुक्ति, वह वन-वन भटकने से;
दिखेगा नील नभ का रूप अब तक जो छुपा सबसे,
खुलेंगे इन्द्रधनु के रंग सातो, मेघ छटने से।

" खुशी के दिन गये न थे, मिला संवाद मुझको यह
जलायेंगे खिले पांडव मिले खांडव विपिन को अब;
सुना तो हो गया व्याकुल बहुत ही मैं तो तन-मन से,
कहाँ यह वेदना सबको जलाती, पीर किसको अब?

" विपिन खांडव नहीं बस, एक जंगल पशु भयावह का,
वहाँ तो बस रहे हैं नागकुल के लोग सदियों से;
बहुत भोले अहिंसक, जाने कब ये अंग से आए,
रखा है दूर अपने को बहुत ही भूमिपतियों से।

" नहीं ये जानते पुर के नियम-बंधन या भूपति को,
किसी का छीनकर जीना इन्हें न आजतक आया;
लुटाते ही रहे हैं ये हृदय के प्यार-खुशियों को,
जहाँ पर जेठ को देखा वहीं मन मेघ बन आया।

" नहीं इनको सिंहासन चाहिए, न धन-प्रतिष्ठा ही,
ज़रूरत भर मिले तो इनका मन-सागर उमड़ता है;
कभी भी भोग, यश, वैभव के पीछे ये नहीं दौड़े,
किसी की आँखों में इनका भला क्यों मोद गड़ता है?

" वनों को पूजते जो और वन ही घर-बिछौना है,
कुसुम के देश के ये नील श्यामल आदिवासी हैं;
कभी समझा न खांडव वन को भूमि यह पराई है,
भले मंदार-वन से ये यहाँ आए प्रवासी हैं।

" कहाँ कुछ भेद ही जाने, नगरवासी नहीं है ये,
धरा पर स्वर्ग के संदेश हैं, मन की कहानी हैं;
मिला था जिनको भुजबल से अमिय का कुंभ सागर में,
उन्हीं व्रतधारियों के वंश की ये भी निशानी हैं।

" हुआ क्या, फिर हिली धरती, गगन गरजा, खड़ा था सिंधु भी तो,
डरे तो आ गये थे झुंड में पैदल ही चल कर ये;
नगर का शोर, विधि-शासन इन्हें न रास आता था,
समय बीता बसे वन में यहाँ से फिर निकल कर ये।

" उसी खांडव विपिन में आग की बारिस करेंगे ये,
जला जो वन, कहाँ जाएंगे ये जीवन-सुरक्षा में?
कहाँ जाएंगे, क्या होगा बेचारे नागवंशी का?
सभी जल जाएंगे, मर जाएंगे अपनी मुमुक्षा में!

" सुना है इस समय बाहर कहीं तक्षक निवसते हैं,
अगर कुरुक्षेत्रा में हैं, किसलिए हैं, कौन यह जाने!
बचा नेतृत्व को बस अश्व बालक, क्या करेगा वह,
समझ ही क्या सकेगा, जाए जो कोई भी समझाने?

" भरोसा ही नहीं होता है मुझको पांडवों पर कुछ?
लगाई आग सातो बार, निष्फल पर रहे हैं वे;
जला कर मार डालें नागकुल को, दानवों को भी,
प्रयासों में अभी भी हैं, यही तो कर रहे हैं वे।

" नहीं विश्वास होता, अब नहीं ऐसा करेंगे वे;
भले ही धर्म का चोला पहनकर संत दिखलाएँ;
हृदय का लोभ मरता ही नहीं है पांडवों का तो,
यहाँ से कट के वनवासी भला किस देश को जाएँ?

" भयावह स्वप्न कैसा था जो देखा रात को मैंने,
समूची देह जैसे अग्नि की लपटें सिहरती हों;
खुले मुख से निकलते बोल ऐसे लग रहे थे; ज्यों,
किसी ज्वालामुखी से आग को नदियाँ ही गिरती हों।

" अचम्भे में पड़े थे कृष्ण तक भी, कौन सम्मुख हैं,
बिना पूछे कहा था उस पुरुष ने कि ' अनल हूँ मैं;
बहुत ही तुष्ट था मैं श्वेतकी के यज्ञ-कुंडों से,
उसी के बाद से ही मैं क्षुदित हूँ, यूँ विकल हूँ मैं।

' क्षुदा मेरी मिटेगी जब जलेगा यह विपिन सारा,
मिलेगी शान्ति मुझको, इस क्षुधा को, इस क्षुधित मन को;
कई ही बार चाहा हूँ जला दूँ एक पल में मैं;
कठिन मेरे लिए है रोक पाना पर घने घन को।

" जभी चाहा, उमड़ आए हैं काले मेघ अम्बर में,
बुझा जाता है दीया फूँक से कोई, यही लगता;
अगर यह काम संभव है तो केवल कृष्ण-अर्जुन से,
उठा जो बोध मन में है, वही बिल्कुल सही लगता। '

" सुना जो यह, कहा अर्जुन ने ' लेकिन अस्त्रा भी तो हो,
कि रोका जा सके जो विघ्न-बाधा आ घिरेंगे ही;
धनुष, रथ, चक्र, तरकश और वैसा ही गदा भी हो,
मिलेंगे ये, जलेंगे नाग-वन, निश्चित घिरंेगे ही। '

" कहा उस देव ने, ' अर्जुन, अभी सब कुछ दिलाऊँगा,
वरुण से बोलता हूँ, एक क्षण में आ मिलेंगे सब'
कहाँ से तीर-तरकश आ गये, गांडीव अक्षय वे,
मिले कौमोदगी, रथ, चक्र, अहिकुल ज्यों जलेंगे अब।

" उठाया तीर-तरकश और फिर गांडीव अर्जुन ने,
लिया था चक्र केशव ने, चढ़े ले कर गदा रथ पर;
जहाँ खांडव खड़ा था मुस्कुराता व्योम को छूकर,
निकल दोनों पडे़ थे हाँकते रथ को उसी पथ पर।

" शरासन तान कर मारा; ज्यों, बरसी तीर से आगिन,
कड़क कर बिजलियाँ काँपी, बहुत ही मेघ गरजे थे,
कहाँ लपटें रुकी थीं, मेघ तक को थीं जला जातीं,
उठे वायव्य अस्त्रों से भयावह दृश्य सिरजे थे।

" बचा हयसेन ही, बस नागकुल में, जल गए थे सब,
कहीं आँसू बहाने बच गया था और तक्षक भी;
किसी कायर पुरुष-सा इन्द्र केशव की शरण में थे,
कहीं क्या भीरू होता है बली, नृपराज रक्षक भी! "

अभी कुछ सोचता, चिन्ता उठी शंकाएँ लेकर फिर,
" कहीं वह सत्य ही न हो, कहाँ यह झूठ लगता है!
बहुत चाहा है ऐसा, मैं भुला दूँ स्वप्न आँखों के
खड़ा फिर सामने होता, कहाँ से आ धमकता है।

" फड़कती है भुजाएँ मेरी ये आँखें फड़कती हैं,
हुआ ऐसा अगर, जो स्वप्न में मुझको दिखा है अब;
भले ही कृष्ण का हो साथ अर्जुन को न छोड़ ूँगा,
जला खांडव अगर, तो नाश उसका भी लिखा है अब।

" यहाँ तक सोचना पर व्यर्थ है इस स्वप्न में पड़ कर,
पता है पांडवों को नागकुल का कौन रक्षक है,
कहे खांडव कोई क्यों, वह मेरा तो मेघवन ही है,
बचेगा किस तरह से कर्ण से जो विपिनभक्षक है!

" यही क्या सोचकर इस्थिर बने रहना उचित होगा?
भलाई बस इसी में है कि कुंजरपुर निकल जाऊँ,
कभी देखा नहीं ऐसा भयावह स्वप्न जो देखा,
कहीं कुछ घेरती शंका अगर है, तो सँभल जाऊँ।

" नहीं, कृष्णा ही होगी शांत, ज्वाला से उठी ज्वाला,
वही खांडव विपिन को भय दिखाती भीष्म ज्वाला है;
सभी को काल के मुँह में बिठाने के लिए उद्धत,
तरीका क्या भयावह पांडवों ने यह निकाला है।

" नहीं ऐसा नहीं कुछ हो सकेगा मेरे जीते जी,
हुताशन खेल खेले और नभ पर मेघ मुस्काए;
नहीं यह धर्म भारत का, नहीं यह अंग का ही है,
किसी की पीठ पर हो घात; अपना पेट सहलाए.

" यहाँ चम्पा में मेरा तन, वहाँ है हस्तिपुर में मन,
न जाने कौन-सा संकट उठाए पंख आ जाए,
सुयोधन साथ में रहना उचित है, छोड़ चम्पा को,
वही तो है मनुज जो धर्म संकट में बचा जाए.

" मुझे मंदार की सौगंध, चानन, चीर की भी है,
निभाया धर्म है मैंने, निभाता ही रहूँगा मैं;
यही तो अंग से सीखा है मैंने, भूमि चम्पा से,
सुबांधव के लिए अपने हृदय पर सब सहूँगा मैं।

" अगर इसके लिए यह अंग मेरा छूटता, तो क्या,
बचा पाया अगर जो हस्तिपुर को, धन्य हूँगा मैं,
जहाँ भी कर्ण होगा, अंग की चम्पा वहीं होगी,
विपद में पीठ देने का भला क्यों शाप लूँगा मैं?

" मुझे करना क्षमा! हे अंगकुल की भगवती देवी,
नहीं है भाग्य में मेरे, यहाँ पर जन्म यह बीते;
अगर जीवन मिला, तो शीघ्र ही मैं लौट आऊँगा,
निवेदन है, कहीं घट हो, तुम्हारा प्रेम न रीते।

" मिले, कुछ न मिले लेकिन मिले यह अंगचम्पा फिर,
इसी की भूमि में मेरी समाए देह-काया यह;
बचा जो कुछ यहाँ पर द्वेष, ईर्ष्या, छल, कपट, यश तक,
जगत इस दृश्य की है चमचमाती मोह माया यह। "

उठा यह सोच शय्या से निकल बाहर चला आया,
वृषाली भी नहीं यह जान पाई क्या हुआ पल में;
चहक कर एक चिड़िया चुप अचानक हो गई है ज्यों,
दिशा से दिग्जयी तक दिख रहे हैं घोर हलचल में।

अचानक जुड़ गये हैं हाथ दोनों कर्ण के तत्क्षण,
मुँदी आँखें, अधर चंचल-से, कुछ-कुछ बुदबुदाते हैं,
उठे जो शब्द, वन के प्रान्तरों से घूम कर आते
जिन्हें ही चन्दना की धार और मारूत सुनाते हैं;

" क्षमा हे अंगमाता, दो विदा, कर्त्तव्य करने को,
मुकुट के मान रखने में, सँवरने या बिखरने को;
नहीं मैं छोड़ सकता बन्धु-बान्धव यूँ हहरने को।
यहाँ तैयार है जब शीश मेरा ही उतरने को।

" क्षमा हे अंगमाता, क्या पता तब लौट पाऊँगा,
नहीं निश्चित है कुछ भी; अब अनिश्चित, क्या सुनाऊँगा;
अगर लौटा तुम्हारे वास्ते वह भोर लाऊँगा,
तुम्हारे द्वीप, गिरि, वन को उसी से मैं सजाऊँगा।

" क्षमा हे अंगमाता, हाँक दे कोई बुलाता है,
वही फिर नींद में झकझोरता, मुझको जगाता है;
नहीं कुछ जान पाता अर्थ, वह जो कुछ सुनाता है,
पता है नियति को, क्या चाहता मुझसे विधाता है। "

सिहरती हैं हवाएँ, भूमि कम्पित, चीर-चानन तक,
गगन तक दिख रहा कम्पित तो कैसे इस निशा में है;
सभी दिक्पाल की आँखें उनींदी और इस्थिर हैं
उधर कुछ धूमकेतु-सा दिखा पश्चिम दिशा में है।