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कूटनीति पर्व / अमरेंद्र

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है शिशिर भी शांत; जैसे, भीष्म शर पर,
शीत की लहरें? समर की सिसकियाँ हैं?
रक्त-गति अवरुद्ध दिक् की हैं शिराएँ,
पसलियाँ हैं पस्त, मूर्छित हैं हवाएँ।

वाण शय्या पर पडे़ हैं भीष्म इस्थिर,
दस दिनों तक युद्ध करते पांडवों से;
रात है, आँखें खुलीं हैं, जग रहे हैं,
योगनिद्रा में हो योगी, लग रहे हैं।

नींद किसको है? किसी को भी नहीं है,
पांडवों को हर्ष है, दिखता नहीं पर;
कौरवों के शोक की सीमा नहीं है,
किसके लिए यह रात अति भीमा नहीं है?

कर्ण ढाढस दे रहा है भूपबल को,
प्राण भरता है सुयोधन में वचन से;
नील सर में उग रहे हैं रक्त सरसिज,
मुस्कुराता राख में है जला मनसिज।

और केशव सोच में डूबे हुये हैं,
" कर्ण सेना का बनेगा पति, है निश्चित;
काल का अगला चरण किस ओर होगा,
यह तो तय है, अब समर घनघोर होगा।

" जानता हूँ इस समय रविसुत गहन में,
शोक है वृसषेन सुत का, वीर अतुलित;
पर व्यथा को; ज्यों सघन घन को प्रभंजन,
है उड़ाए जा रहा ही कर्ण का मन।

" गात्रा कैसा? अग्नि जिसको छू न पाए!
हो रहे भूकंप; इस्थिर और पर्वत!
धूमध्वज टकरा रहे हैं; गगन निश्चल!
फट रही ज्वालामुखी, पर सिंधु शीतल!

" कर्ण का जब शंख गूूँजेगा समर में,
कौरवों में सिंधु की लहरें उठेंगी,
मृत्यु नाचेगी करोड़ों चरण ले कर,
काँप जायेगी धरा, काँपंेगे भूधर।

" पार्थ! यह राधेय, वैकर्त्तन, विजयधर
दानसुर ही क्या, वृषा, वसुषेन, रविसुत,
अंगभूपति, अधिरथी, राधेय भी है"
और मन में ही कहा, " कौन्तेय भी है।

" यह कोई जाने न जाने, जानता हूँ,
वर्ष तेरह किस तरह से हैं बिताए,
जब रहे वनवास में छुपते युधिष्ठिर,
कर्ण-भय से रह सके क्या कभी इस्थिर?

" कर्ण का बल, कर्ण का रथ, कर्ण-आयुध,
पांडवों का तेज ठहरेगा कहाँ पर!
पार्थ यह तो कौरवों का कृष्ण ही है,
बात कुछ भी हो कहीं से; एक आशय।

" यह नहीं है भीष्म, जिसका मन बँटा हो,
एक तन से, एक मन से कौरवों का;
जब तपेगा जेठ का सूरज शिखर पर,
क्षुब्ध बेहद हो उठेंगे व्योम-सागर।

" जल उठेगा बादलों का राज्य धू-धू,
उड़ चलेंगे रेत बन कर भीम पर्वत;
क्या सहज वसुषेन-रथ को रोकना है?
यह तो जैसे रुद्र को ही टोकना है।

" अब समर में जो घटेगा, वह अघट है,
नीति-नय की भूमि से कुछ अलग हटकर;
द्रोण की माया सिमटने को बची अब,
शोक की काया सिमटने को बची अब।

"यह निशा जो घिर गई है, अंत है क्या?"
सोच कर यह मन-ही-मन हैं कृष्ण व्याकुल;
कुछ कहे, पर क्या कहे, यूं भ्रांत मन है,
सिर्फ शंकाएँ नहीं हैं, भय सघन है।

देख कर यूँ मौन केशव को कहा था,
पार्थ ने कुछ उल्लसित होते हुए से;
" अब रहा क्या भय, पितामह दूर पथ से,
युद्ध कुचला जायेगा, अब पार्थ-रथ से।

" कौन है गांडीव के अब सामने में?
है अगर कोई; समझिए मृत्यु निश्चित;
या सताती है पितामह की ही हालत?
तीर-शय्या पर पड़े हैं दीन-आरत। "

सुन धनंजय की ये बातें मौन टूटा,
फड़फड़ाया वृक्ष पर हो कोई सारस;
ज्यों, उठा आलोक हो तम को हटा कर,
कृष्ण बोले, पार्थ को अनुकूल पाकरµ

" पार्थ, जो कुछ कर गए हैं भीष्म वह तो,
भूलना होगा कठिन, मेरे लिए वह;
अस्त्रा को आखिर उठाना ही पड़ा जब
पर यहाँ तो और भी संकट बढ़ा जब।

" कर्ण सेनापति बनेगा शीघ्र समझो,
कर्ण, जो नर रूप में हिम शैल ही है,
पत्थरों की भार से वह क्या हिलेगा,
सूर्य बरसेगा, तो क्या सरसिज खिलेगा?

' पार्थ, तुमने क्या नहीं देखा तपनसुत
तीर पर सोए पितामह से मिला जब;
था श्रद्धानत, शांत गौरव से भरा था,
तब पितामह ने कहा था वच् डरा-साµ

' कर्ण, तुम चाहो तो रुक सकता समर यह,
और सारे रास्ते हैं बंद अब तो;
तुम तनय कुंती के, अग्रज पांडवांे के
कृष्ण बनकर क्या मिलेगा, कौरवों के? "

जब कहा था कृष्ण ने कुंती कथा को,
कर लिया था स्वर बहुत ही कंठ के नीचें,
फिर कहा, " तब देवव्रत ने यह कहा था,
' कह रहा जो अनकहा अब तक रहा था,

' रवि तनय तुम, व्यास तक को यह पता है,
सूत कहकर पर तुम्हारा जी दुखाया;
क्या कहूँ, यह बात अब कितनी सताए,
विस्मृति ले घेर, मति ये डूब जाए! '

" सुन कहा था कर्ण ने यह, ' हे पितामह,
वीरता का वंश-कुल क्या, जात कैसी?
दान ही तो धर्म मेरा, वंश मेरा,
हे पितामह और फिर क्या अंश मेरा!

' दे दिया है दान जीवन कौरवों को,
अब कहाँ इस पर मेरा अधिकार कुछ भी;
मैं सुयोधन के लिए रण को समर्पित,
और सारे लोभ सुख के बंद, वर्जित। '

" फिर झुकाकर शीश लौटा था शिविर को,
शांत जलनिधि-वेग को सारे समेटे;
कल उठेगी ज्वार रण में पूर्णिमा की?
आज छायी कालिमा कैसी अमा की!

" यह सही है, अब पितामह-भय नहीं है
और जयद्रथ की हुई है शेष गाथा;
बर्बरिक भी दूर पथ से, चित्रा भर है,
पर नहीं समझो कि निष्कंटक समर है।

" मानता हूँ, अब श्रवा का भय नहीं है,
सब किया मैंने उचित-अनुचित न माना,
पर समर में कर्ण जब होगा उपस्थित,
व्योम छूता क्रुद्ध सागर घोर गर्जित।

" कर्ण का बल जेठ का फैला दिवस है,
मत समझना, यह शिशिर की धूप के दिन;
शक्ति इसकी सिंधु में ज्वालामुखी है,
शिवधनुष में डोर बनकर बासुकी है।

" मोह पीड़ित जब हुए थे पार्थ तुम ही,
वह नहीं था मोह, भय था कर्ण का ही;
ज्ञान गीता का मुझे देना पड़ा था,
तब कहीं नेपथ्य में रविसुत खड़ा था।

" हो बहुत ही वीर, लेकिन कर्ण जैसा
दूसरा देखा नहीं, जो सच कहूँ तो;
पार्थ, यह जो कर्ण है, मत भूप समझो!
शील के सौन्दर्य का प्रतिरूप समझो!

" जब पितामह बाद आया रणविजय को,
क्या कहा, ' है कौन सेनापति से कम जो?
पर यहाँ वय-ज्ञान में गुरु द्रोण केवल,
मान सेनापति उन्हीं को पाएँ सम्बल! '

" दूसरा होता तो क्या कहता, पता है,
और उसके ही लिए जिसने हमेशा,
सूत कहकर कर्ण के जी को जलाया,
कर्ण ने गुरुमान को मन से निभाया!

" किस तरह से मुग्ध होता है समर में,
देख कर गुरु-रण-कला को, क्षिप्र भेदन;
नेत्रा कर लेता है पल भर बंद, सुख से,
सामने के संकटों से हो विमुख-से।

" शील में या शूरता में वह अकेला,
कर्ण का कोई नहीं है जोड़, भू पर,
धर्मरथआरूढ़ अंगपति वीर रविसुत,
कौन उसका हो सहायक, वह तो अच्युत!

" पार्थ यह भूलो नहीं कि कौरवों का
आज या कल, जय-अजय बस कर्ण ही है,
जिस तरह मैं पांडवों का प्राण-आश्रय;
यह समर तो कर्ण-केशव का ही निश्चय।

" हूँ बहुत अभिभूत रविसुत धर्म से मैं,
अंग के इस पूत, दानी का सुयश तो
धर्म भी गुणगान करता मुक्त मन से;
क्या सुनी तुमने प्रशंसा है गगन से?

" शांत होकर चित्त को ऊपर उठाओ,
घन गरजते कुछ कहेंगे कान में फिर;
' कर्ण से तो दान का है धर्म शोभित,
स्वर्ग से पाताल तक का लोक गर्वित। '

" याद है, ली थी परीक्षा विप्र बनकर?
साथ तुम थे, घोर वर्षा का समय था;
काठ सूखे जब युधिष्ठिर से मिले न,
धर्म के सरसिज वहाँ पर भी खिले न;

" जाँचने तब कर्ण के ही द्वार आये,
काठ सूखे ही कहाँ थे, था सताहा;
लौटने को ज्यों हुआ, तो कर्ण बोलाµ
'विप्र रुकिए!' और चन्दन द्वार खोला।

" काट डाला था उसे असि-धार से ही,
फिर कहा था, ' लकड़ियाँ सूखी हुई हैं,
तात, हो स्वीकार, यह उपकार होगा,
कुल मिलाकर धर्म का उद्धार होगा! '

" पार्थ, ऐसा धर्म का पालक कहाँ है!
स्वर्ग भी अति दीन है वसुषेन सम्मुख;
धर्म जिसका कवच-कुण्डल; दीन होगा!
वह समर में क्या कभी बलहीन होगा!

" पर समर से इसलिये क्या हट चलेंगे?
एक क्या, प्रणभंग होंगे सौ, तो होंगे!
मैं बँधा जिन आँसुओं की डोर से हूँ,
कर रहा सबकुछ वही, जिस ओर से हूँ।

" तब बहुत बचकर हमें चलना पड़ेगा,
कुछ हुई जो भूल, जय है कौरवांे की;
चूक थोड़ी-सी हुई कि हार पर हम,
जो कहूँ, वैसा ही करना; धार पर हम।

" यह उमड़ती कौरवों की भीमसेना,
जब हटा भगदत्त, तो अब भय कहाँ है;
सुर-असुर की शक्ति का भगदत्त विक्रम!
घेर कर कैसे खड़ा था घोर विभ्रम।

" अब कहीं कुछ भी नहीं है, कर्ण है बस,
काल, ज्यांे कालेय पर ही नाचता-सा;
रोकना होगा ही घूर्णित वेग को अब,
पांडवों के सहमे मन, उद्वेग को अब।

" आ गया है जब घटुत्कच, भय कहाँ है,
कर्ण कैसे रख सकेगा शक्ति देखें!
मृत्यु पर जब मृत्यु टूटेगी भयानक,
काल तक अनुकूल देखोगे अचानक।

" पर सतत रहना पड़ेगा बहुत चौकस,
इस तरह कि कर्ण-कौशल दिख सके न;
जिस तरह से हो, लगे वह हीन सबसे,
बस यही कोशिश करें हम, आज, अबसे।

" जब बजाए कर्ण अपने शंख को तो,
पांडवों के शंख गूँजे घोर घन-से;
इस तरह से कौरवों में भीत होगी,
जो हुआ यह, समझो पहली जीत होगी!

" किस तरह से हीन उसको है दिखाना,
शल्य भी यह जानता है, क्या करेगा;
सारथी बनकर हरेगा कर्ण का बल,
जीत का यह भी बहुत आसान सम्बल।

" कर्ण के सम्मुख करेंगे अस्त्रा क्या कुछ,
यह महाभारत टिका जिस नीति पर है;
नीति वह ही काम आयेगी समय पर,
कर्ण के रहते कठिन समझो विजय पर।

" वैसे यह भी सोचता हूँ, क्या विजय यह,
धर्मसुत को बेध कर क्या धर्म होगा?
क्या कहूँगा अंग की व्याकुल प्रजा से?
धर्म का संकेत, उस उज्ज्वल ध्वजा से?

" कर्ण ने मुझसे कहा था, जब मिले थे,
हम सभा से दूर रथ पर बात करतेµ
' कह नहीं सकता कि रण में क्या लिखा है,
पर कभी वह भ्रमित करता, जो दिखा है!

' देह है तो नष्ट होगी आज न कल,
नभ, सलिल, रज, वायु, पावक का खिलौना;
काल का शिशु तोड़ जाए, कब न जाने,
रश्मियों का लोक आए मन उठाने।

' तब निवेदन है यही, सुनिये, नरोत्तम,
अंग भू पर ज्येष्ठ है जो गौर उन्नत;
जिस अचल को छू बहा करती है चानन,
भूमि उसकी हरि-हथेली-सी ही पावन।

' अंग की कुलदेवि की जो शयन-शय्या,
खेलती-गाती है झूमर दिन पहर भर,
आग मन की, रक्त उसमें ही समाये,
पंचभूतों की ये माया लौट जाए! '

हो गये थे मौन केशव यह सुनाकर
पार्थ कहना चाहता कुछ था, तभी ही,
मौन रहने का किया संकेत दृग से,
नील नभ-सा दिख रहे केशव, अडिग से।

घिर गई थी रात कालिख को समेटे,
जुगनुएँ, जैसे, मशालें तम-शिविर में;
शांत है वातावरण, उठता प्रभंजन,
है शिला-सी देह, लेकिन चित्त खंजन!

उड़ रहे संकेत के संग भ्राँतियाँ हैं
कौरवों के, पांडवों के भी शिविर में;
बुद्धि-मन से और सारी इन्द्रियों से,
लड़ रहे हैं कर्ण-केशव आँधियों से।