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उड़ान / सुभाष राय

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जब भी मैं आसमान की ओर देखता हूँ
चिड़ियों की उड़ान उदास कर देती है
अपने कन्धों पर महसूस करता हूँ
झड़ गए पँखों के निशान

गहरे घाव की तरह

दर्द उभरता है और निगल जाता है मुझे
नहीं, अब उड़ नहीं सकता मैं
आसमान से धरती को नहीं देख सकता
एक साथ, एक नज़र में
गोते नहीं लगा सकता
सितारों के नीचे, ज़मीन के ऊपर

ख़ुद को समेटकर
चिड़ियों के पीछे नहीं भाग सकता
उनके घोंसलों तक
उनके बच्चों को माँ की तरह
स्पर्श नहीं कर सकता

मुझे याद है धरती पर बिखरे
सुख-सौन्दर्य के लालच में
मैंने ही अपने पँख कतर डाले
बान्ध लिया अपने आप को
मुरझा जाने वाले फूलों की पँखड़ियों से
समय के साथ ख़त्म हो जाने वाली
ख़ुशबू की बेड़ियों से
मेरे मन में धरती पर उगने की
ऐसी आकाँक्षा जगी
कि मैं रोक नहीं सका अपने आप को
उगा तो पर अब उड़ान कहाँ

पेड़ हो गया जबसे
सोचता हूँ उड़ान से लौटकर
चिड़ियों का झुण्ड
मेरी हज़ार बाँहों पर
बैठा करे आपस में बतियाते हुए
मेरी पत्तियों की आड़ में घोंसले बनाए
सो जाए रोज़ सुबह होने तक
ताकि मैं भी थोड़ी देर के लिए ही सही
पेड़ से चिड़िया में बदल सकूँ