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आत्म-स्वीकृति / महेन्द्र भटनागर

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तुम इतनी पागल नहीं बनो !

जिसको समझ रही हो प्रतिपल
सरल-तरल भावों का निर्झर,
वह बोझिल दर्द भरा वंचित
चिर एकाकी सूना ऊसर,

अपने मन को वश में रक्खो
यों इतनी दुर्बल नहीं बनो !

क्यों बड़ी लगन से देख रहीं —
यह पत्थर है, मोम नहीं है,
अरी चकोरी ! सुबह-सुबह का
सूरज है, यह सोम नहीं है,

यों किसी अपरिचित के सम्मुख
तुम इतनी निश्छल नहीं बनो !

यह मेघ नहीं सुखकर शीतल
केवल उष्ण धुएँ का बादल,
इसमें नादान अरे ! रह-रह
खोजो मत जीवन का संबल,

सब मृग-जल है, इसके पीछे
तुम इतनी चंचल नहीं बनो !

बड़े जतन से सजा रही हो
तुम जिस उजड़ी फुलवारी को,
कैसे लहराये वह, समझो
तनिक हृदय की लाचारी को,

अश्रु-भरी आँखों में बसकर
शोभा का काजल नहीं बनो !