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प्रेम / सुभाष राय

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तुम बताओगे प्रेम क्या है ?
मादक गहराई में उतर जाने
का पागल उन्माद या कुछ और
तप्त अधरों पर ठहर जाने के
बाद की खोज या कुछ और
शिखरों पर फिरती उँगलियों से उठती
चिनगारी भर या कुछ और
पल भर की मनमोहक झनझनाहट या कुछ और
 
चुप क्यों हो, कुछ बताओ
अगर प्रेम किया है कभी तो बोलो
प्रेम के बाद भी बचे रह गए या नहीं
प्रेम के बाद कोई और चाह बची या नहीं
पूरा पा लेने के बाद भी बार-बार
पाने की उत्कण्ठा शेष तो नहीं रही
 
अगर तुमने सचमुच प्रेम किया है
तो मैं जानता हूँ चुप रहोगे,
बोलोगे नहीं, बोल ही नहीं पाओगे
सुनोगे ही नहीं मेरा सवाल
 
प्रेम देह को मार देता है
आँखों का अनन्त आकाश एक
दहकते फूल में बदल जाता है
पूरा आकाश ही खिल उठता है
पलकें गिरती नहीं, उठतीं नहीं
गूँजती है वीणा महामौन की
और कुछ भी सुनाई नहीं पड़ता
फूल न दिखते हैं, न महकते हैं
गन्ध में बदल जाता है पूरा अस्तित्व
देह जीते हुए मर जाता है तो प्रेम जन्म लेता है
 
कभी ऐसा हुआ क्या तुम्हारे साथ
याद करो, कभी करुणा बही क्या आँखों से
कभी मन हुआ क्या दूसरों के लिए लुट जाने का
नहीं हुआ तो सच मानो तुमने प्रेम नहीं किया कभी
तुम प्रेम की परिभाषाएँ चाहे जितनी अच्छी कर लो
पर प्रेम का अर्थ नहीं कर सकते
प्रेम ख़ुद को मारकर सबमें जी उठना है
प्रेम अपनी आँखों में सबका सपना है