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मुक्तक / अमन चाँदपुरी

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जीवन क्या है, समरांगण है
इसे जीतने का ही प्रण है
सुख-दुख का है महाकाव्य यह
दुख इसका मंगलाचरण है

जो भाग्य में हमारे था, आप पा रहे हैं
हम ज़हर पी रहे हैं, संताप पा रहे हैं
कैसी कुचक्र चालें, चलते हैं देवता अब
वरदान पाने वाले अभिशाप पा रहे हैं

किस जगह से कहाँ से आई हो
तुम मेरी ही हो या पराई हो
तुमको पढ़कर उछल पड़ा मैं तो
जैसे ख़ैय्याम की रुबाई हो

आँसुओं की नदी में उतरी है
ज़िन्दगी शायरी में उतरी है
मुग्ध करती है श्याम की आभा
राधा अब बाँसुरी में उतरी है

नैन में प्यास लेकर भटकते रहे
दर्श की आस लेकर भटकते रहे
प्रेम ने तुमको जोगन बना ही दिया
हम भी संन्यास लेकर भटकते रहे

काव्य की तुमसे पुष्प-माला है
मैंने कविता में तुमको ढाला है
मेरा जीवन अमावसी था जो -
उसमें हर ओर अब उजाला है

दुख प्रणय के गीत का आधार है
दुख सृजन का केंद्र है, श्रंगार है
दुख में सुख के भेद भी तो हैं छिपे
दुख रचयिता का दिया उपहार है

तप के जैसा है साधना जैसा
पूजा जैसा है अर्चना जैसा
प्यार ईश्वर है प्यार ही अल्लाह
प्यार करना है प्रार्थना जैसा

जिनमें तुम थे नहीं वे सपन व्यर्थ थे
प्रीत की सुन कथा हम मगन व्यर्थ थे
ऐसे जीवन को सार्थक कहें किस तरह -
बिन तुम्हारे तो सचमुच 'अमन' व्यर्थ थे

हार अब जीत जैसी लगती है
दुश्मनी-प्रीत जैसी लगती है
प्रेम के उस पड़ाव पर हूँ जहाँ -
प्रेमिका मीत जैसी लगती है

कौन कहता है? आबाद हैं
कहने भर को ही आजाद हैं
जैसा चाहा था जीवन जिया -
आप लाखों में अपवाद हैं

घाव-छालों की बात क्या करते
तीर-भालों की बात क्या करते
जिनमें पौरुष न रंच-भर भी हो -
वो मशालों की बात क्या करते

व्यर्थ की बात फिर उछाली है
बाल की खाल फिर निकाली है
मौन रहना ही मेरा बेहतर है
अब तो हर दृष्टि ही सवाली है