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वसीयत / ऋषभ देव शर्मा

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सुनो !
मैंने
अपने दोनों हाथ
तुम्हारे नाम
वसीयत
कर दिए हैं
जानता हूँ –
इनके
संवेदनशून्य
खुरदरे स ?
तुम्हारी देह
पुलकित नहीं होगी,
बस,
होंठ बिचका दोगी
तुम
घृणा से
फिर भी
अगर तुम्हें
कभी ऊष्मा की ज़रूरत हो
तो
मेरे दोनों बेडौल हाथ
चूल्हे में झोंक देना,
ये
मैंने
तुम्हारे नाम
वसीयत
कर दिए हैंI