Last modified on 30 जुलाई 2019, at 00:38

टिहरी पड़ी डुबानी / ऋषभ देव शर्मा

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:38, 30 जुलाई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ऋषभ देव शर्मा |अनुवादक= |संग्रह=प्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

एक बार बहके मौसम में कर बैठा नादानी
रह रह कर बह बह जीवन भर कीमत पड़ी चुकानी

एक कटोरी दूध लिए कब से लॉरी गाता हूँ
जब से चरखा कात रही है चंदा वाली नानी

जानी कैसे लिख लेते सब रोज नई गाथाएँ
इतने दिन से जूझ रहा मैं पूरी न एक कहानी

साँझ घिरे जिसकी वेणी में बरसों बेला गूँथी
पत्थर की यह चोट शीश पर उसकी शेष निशानी

एक शहर था, चाहा पहल थी, आबादी थी, घर थे
नई सदी में नदी रोककर, टिहरी पड़ी डुबानी