आज भी चीर हरण होता है,
सड़को पर बेदर्दी से,
और सब मूक बन जाते हैं,
कौरवों की सभा की तरह ।
नियमों और कानूनों की,
बाते होती हैं चर्चाओं में ।
कोई षकुनी तो कोई,
दुर्योधन तथा दुषासन,
आज भी बैठे हैं गद्दियों पर ।
पाण्डवों जैसे भी आज सभा,
बैठे हैं मुह छिपा कर,
धृश्टराश्ट्र जैसे आज भी,
राज करते हैं ।
अपनी रोठियाँ सभी,
सेकते हैं, गरम तवे पर,
किन्तु कोई कृश्ण नहीं,
बन पाया आज तक ।
इतिहास के विकृत रूप को,
स्वीकार लिया है सभी ने,
इतिहास को बदलने का दम,
नहीं भरा है किसी नें ।
इतिहास को बदलकर,
एक बार जरा देखें तो,
कोई दुषासन,
नहीं जन्मेगा जमी पर ।