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प्रिय ऑक्टोपस / दिनकर कुमार

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प्रिय ऑक्टोपस !
तुम निचोड़ते हो मेरी धमनियों से
बून्द-बून्द लहू
और उगलते हो
जूठन ऑक्सीजन
जिनको मैं ग्रहण करता हूँ
और मरते-मरते
बच जाता हूँ
 
मेरी छटपटाहट
मेरी बेचैनी
आँखों की तरलता
आहत सम्वेदना
तुम्हें हृदय-परिवर्तन के लिए
प्रस्तुत नहीं कर सकती
 
तुम्हारी पकड़ के विरुद्ध
मेरी समस्त शक्ति
भीतर ही भीतर
घुमड़कर रह जाती है
 
मेरे सुन्न हो रहे अँगों में
तुम्हारे ठण्डे स्पर्श
की अनुभूति बची रहती है