{KKRachna |रचनाकार=कविता भट्ट |अनुवादक= |संग्रह= }}
विदाई में तेरे चेहरे की सलवटें
मुझे सताए जैसे बेघर को गर्म लू।
तू रो न सका, मेरे आँसू न रुके,
पहाड़ी घाटी में उदास नदी-सा तू।
छोड़ रहा था चुन्नी, काँपते हाथों से,
सुना था, पुरुष लौह स्तम्भ हैं हूबहू।
तेरे मन के कोने मैंने भी रौशन किए,
मेरी नज़र में मन्दिर के दिये -सा तू।
चार क़दम में कई जीवन जी लिये,
अमरत्व को उन्मुख अब यौवन शुरू।