Last modified on 10 अगस्त 2019, at 18:28

वो बात / शहराम सर्मदी

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:28, 10 अगस्त 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शहराम सर्मदी |अनुवादक= |संग्रह= }} {{K...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

वो बात अगर मैं ख़ुदा से कहता
मैं जानता हूँ वो सुन भी लेता
(जवाब देने की कोई मीआद तय नहीं हो
तो सिर्फ़ सुनने में हर्ज क्या है)

मैं मानता हूँ
जवाब वो एक रोज़ देता
प ख़्वाहिशों ने मिरी समाअत को मो'तबर ही कहाँ है रक्खा
ये ख़्वाहिशें हैं कि मेरे कानों में रूई सा कुछ निहाँ है रखा

मैं सोचता हूँ
वो बात अगर मैं ख़ुदा से कहता
तो मस्लहत का शिकार होती
फ़ुज़ूल बे-ए'तिबार होती
मैं मस्लहत का नहीं मुख़ालिफ़
प जानता हूँ किसी भी शय के
हर एक पहलू पे ग़ौर होगा
तो मस्लहत का शिकार होगी
तलाश-ए-हर-ए'तिबार बे-ए'तिबार होगी

मैं चाहता हूँ
कि मशवरा भी करूँ किसी से
पे अक़्ल-ए-इंसान
(अक़ल-ए-नाक़िस)
हर एक पहलू पे ग़ौर
ख़ुद एक मज़हका है

यहाँ से आगे जो मरहला है
वो फ़हम-ए-इंसाँ से मावरा है
ख़याल आता है अक्सर अक्सर
ख़लीफ़तुल-अर्ज़ हूँ
इसी सतह पर जो सुलझाऊँ बात को मैं

मगर ख़िलाफ़त को क्या विलायत मिली हुई है
मज़ीद ये क्या अवाम ओ अशराफ़ की हिमायत मिली हुई है
अगर नहीं तो ये जुज़्व-ए-अफ़्कार किस लिए है
ये फ़िक्र-ए-बे-कार किस लिए है

वो बात यूँ अहम है
कि मेरे वजूद में रूनुमा हुई है
वजूद की इक बिना हुई है
वो बात मुझ से जुदा नहीं है
वो बात सच है वो महज़ इक मरहला नहीं है

वो बात मैं हूँ
मैं ख़ुद को ज़ाए नहीं करूँगा