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व्यथा / महेन्द्र भटनागर

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तुम नये युग के तरुण हो,
है नहीं देता तुम्हें शोभा बहाना अश्रु
प्रिय की याद में,
या बेवफ़ाई में !
कि बदली घिर रही है,
वायु मंथर मधु बसंती बह रही है,
चांदनी आकाश में छिटकी हुई है !

और तुम हो दूर प्रिय से !
या कि प्रिय ने है किया
विश्वासघात कठोर तुमसे !

सरल तुम भावुक हृदय के जीव हो,
दिल में तुम्हारे प्यार है,
अरमान हैं,
है चाहना सुख की,
नयी स्वर्णिम विहँसती ज़िन्दगी के स्वप्न हैं !

पर, आज चकनाचूर वे,
ज्यों गिर पड़ा हो हाथ से
पाषाण पर जा ताप-मापक-यंत्र,
बहते अश्रु पारे के सदृश,
मानो रहा ही अब नहीं
कोई तुम्हारा वश !

न सोचो —
दीप बुझता जा रहा है,
और बीती याद का
तीखा, नुकीला शूल चुभता जा रहा है !

ये कबूतर
जो कि छत पर मौन बैठे हैं
किसी की क्या कभी यों याद करते हैं ?