मैं भाषा में होकर
केवल तुतलाता था
भाषा मुझ पर
बाहर से
धूल-सी झरती थी
उसमें गुम होकर
विरल हुई वाणी से
मैं अपनी कथा कहकर
पछताता था
कथा पर भी धूल
झरती रहती थी
मेरी तुतलाहट
बढ़ती जाती थी
मैं धीरे-धीरे एक दिन
गूँगा हो जाता था
गूँगा कण्ठ प्रार्थना में
धन्यवाद का गीत गाता था !