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बहुतेरे / महेन्द्र भटनागर

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आज सबेरा होता है
पर, बहुतेरे सोते हैं,
काट रहे जन आज फ़सल
पर, बहुतेरे रोते हैं !

आज नयी गंगा बहती
पर, बहुतेरे प्यासे हैं,
चातक से बन इस जल को
पीना घातक कहते हैं !

आज नयी जो चली हवा
इन खेतों-खलिहानों पर,
जन-जन लेते साँस मुक्त
पर, बहुतेरे रहे सिहर !

आज नया संसार बना
पर, कुछ कलियुग समझ रहे,
डर अपनी परछाईं से
अपने में ही उलझ रहे !