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जिजीविषा (कविता) / महेन्द्र भटनागर

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जी रहा है आदमी
प्यार ही की चाह में !
पास उसके गिर रही हैं बिजलियाँ,
घोर गहगह कर घहरतीं आँधियाँ,
पर,
अजब विश्वास ले
सो रहा है आदमी
कल्पना की छाँह में !
जी रहा है आदमी
प्यार ही की चाह में !
पर्वतों की सामने ऊँचाइयाँ,
खाइयों की घूमती गहराइयाँ,
पर,
अजब विश्वास ले
चल रहा है आदमी
साथ पाने राह में!
जी रहा है आदमी
प्यार ही की चाह में !
:
बज रही हैं मौत की शहनाइयाँ,
कूकती वीरान हैं अमराइयाँ,
 :पर,
अजब विश्वास ले
हँस रहा है आदमी
आँसुओं में,
आह में!
जी रहा है आदमी
प्यार ही की चाह में!