तुम्हारी पूरी वातानुकूलित सभ्यता
इतनी हवा कभी नहीं जुटा पाएगी
कि सूख सके
एक किसान की बग़ल का पसीना
मैं कितना विरोध करूँ
किसका और कब तक ?
मेरी कई पीढ़ियाँ विद्रोह की बन्धुआ रही हैं
मेरे पिता कहते थे ईश्वर हर जगह हैं
शायद मेरी भाषा के बाहर
’ईश्वर’ के लिए चुना गया शब्द ’दमन’ है
शायद कोई इष्ट रूठा है मुझसे
या पितृदोष लगा है कि
मेरे नारों से हर बार पतझड़ तो आए
पर उसके बाद के वसन्त
कभी मेरी बही में दर्ज़ नहीं हुए
अब मैं स्थगित करता हूँ ये निरन्तर विद्रोह
और जुटाता हूँ एक
निर्मल दिवास्वप्न देखने की आस्था
स्वप्न में मेरा एक खेत है
जिसमें लहकता है मक्का
आद्र है आकाश
मेरी श्वास है
जिसमें सूदखोर का ज़रा भी हिस्सा नहीं
मैं हार नहीं मानता
मैं थका हुआ भी नहीं हूँ
अब, बस, ये चाहना है कि
दीमकों की बाम्बी पर
कभी चहके नन्हीं पीली चिड़िया
और किसी दबी परत से
अकुलाहट तोड़कर रिहा हों वो गीत
जिनमें कहा जाए कि ऋण मुक्त हूँ मैं !