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पिता / यतीश कुमार

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पिता मेरे कंधे की
एक टहनी टूट गयी है
प्रौढ़ वृक्ष हूँ मैं अब
और मेरी घनी लदी शाखाओं में
कोई छिद्र तक नहीं दिखता
सूरज की महीन रोशनी भी
इसे भेद नहीं पाती

पिता मेरा लदा हुआ होना
मेरी स्थिति का द्योतक है
समय से ज़्यादा
स्वयं के भार में
तुम्हारे दबे होने का अहसास लिए
फलता फूलता हूँ मैं

आज अचानक चटकी टहनी में
तुम्हारी पीड़ा और जंग लगे दर्द
अपने हस्ताक्षर करते दिख रहे है

तुम्हारे धज को
रेशा दर रेशा बिखरते
मूक देखता था कभी
और विशाल तुम्हारे आग़ोश से
अपनी स्वतंत्रता का उदघोष
थाली पीट कर किया था मैंने
मेरी स्वतंत्रता का एक तमाचा
आज मेरे चेहरे के
बाई ओर दिख रहा है

पिता तुम्हारी टहनियों और पत्तों को
रोज़ गिरते झरते देखता था
वो पत्ते रोज़ गिर कर
मेरे पथ के काँटों को ढाँपते रहे

आज जबकि तुम्हारे सारे पत्ते झर चुके है
तो पहली बार काँटे ने मुझे डसा है
और आज ही मेरे कंधे की
पहली टहनी चटकी है