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पंचानवें प्रतिशत / यतीश कुमार

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रुकी हुई घड़ी की टिक-टिक
बिना नाल के घोड़े की टप-टप
किवाड़ का हल्का-सा उखड़ा क़ब्ज़ा
रगड़ता हुआ घिसटता दरवाज़ा

इनमें से हर एक में मैं हूँ

टपकता हुआ फूस का घर
घर की भीगी हुई लकड़ी
उसपर खाना बनने का इंतज़ार
इंतज़ार में जलती हुई लालटेन
लालटेन का दरका हुआ शीशा
शीशे में आधा लिपटा हुआ अख़बार
और अख़बार में सुलगते हुए सवाल

उन सब की खोजती आँखों में मैं ही हूँ

मंदिर का वो अकेला घंटा
जिसकी घंटी हो गयी है गुम
चढ़ते -चढ़ते थाली में
अकेले पड़ा रह गया वो फूल

इन सब में कहीं न कहीं मैं हूँ

ठूँठ पेड़ की वो अंतिम पत्ती
जिसने अपना हरापन
अभी -अभी छोड़ा है

उस पेड़ की वह जड़
रास्ता बनाने के लिए जिसे
अभी- अभी काटा गया है

उन सबमें ही कहीं छूट गया हूँ मैं

बिना मोती के मुँह खोले
अकेला पड़ा वह सीप
बिना स्प्रिंग के टोवेल क्लिप
जलकर बुझा हुआ
बिना बाती का दीप

इन सबके एकांत में मैं ही हूँ

दिल के सबसे करीब
खोसा गया गई फ़ाउंटन पेन
निब जिसकी शार्प है
और नालिका सुखी हुई

कविता अब स्याही से नहीं
सिर्फ़ गर्म खौलते ख़ून से
लिखी जा सकती है

घड़ी,घंटा,किवाड़,क़ब्ज़ा
दरवाज़ा,फूल,पेन,पपड़ी और मैं
सब इस देश का ९५ प्रतिशत है
जिन पर मुखौटा लगाए
बेताहाशा कविताएँ
सिर्फ़ लिखी जा रही हैं।