वक़्त ने अपनी शक्ल छुपा दी
और घड़ी ने अपने हाथ
बर्फ़ पिघलने और
नदी जमने लगी है
पगडंडियाँ हो रही हैं विलुप्त
और रास्ते लगें हैं फैलने
केंचुओं ने छोड़ दिया है
मिट्टी का साथ
और मिट्टी ने किसानों का
बारिश ने ही
चुरा लिया है
मिट्टी से सोंधापन
गुलाब के काँटे
अब चुभते नहीं
आघात करते हैं
कमल अब सूरज को देख नहीं खिलता
छुइमुई ने भी शर्माना छोड़ दिया है
और दीमक
दीमक अब लोहे को भी चाट जाता है
नेवला बिल में घुस गया है
साँप बिल में अब नहीं रहता
शहर में घुस आया है
सियार अब आसमान ताके
आवाज़ नहीं लगाता
मुँह झुकाए रिरियाता है।
और इंसान ???
इंसान ने इन सबकी शक्ल चुरा ली है
@यतीश कुमार
देह, बाज़ार और रोशनी - 1
उस कोने में धूप
कुछ धुँधली सी पड़ रही है
रंगीन लिबास में
मुस्कुराहट
नक़ाब ओढ़े घूम रही है
उस गली में पहुँचते ही
बसंत पीला से गुलाबी हो जाता है
इंद्रधनुषी उजास किरणें
उदास एकरंगी हो जाती है
और वहाँ से गुज़रती हवा
थोड़ी सी नमदार
थोड़ी सी शुष्क
नमक से लदी
भारीपन के साथ
हर जगह पसर जाती है
हवा में सिर्फ़ देह का पसीना तैरता है
दर्द और उबासी में घुलती हँसी
ख़ूब ज़ोर से ठहाके मारती है
सब रूप बदल कर मिलते है वहाँ
सिर्फ मिट्टी जानती है
बदन पिघलने का सोंधापन
और बर्दाश्त कर लेती है
हर पसीने की दुर्गन्ध
उन्ही मिट्टियों के ढूह पर
बालू से घर बनाता है
एक आठ साल का बच्चा
और ठीक उसी समय
एक बारह साल की लड़की
कुछ अश्लील पन्नों को फाड़ती है
और लिखती है आज़ादी के गीत
पंद्रह अगस्त को बीते
अभी कुछ दिन ही हुए है