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नयी रचना / महेन्द्र भटनागर

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नवीन ज्योति की किरण
सुदूर व्योम से
सघन युगीन अंधकार
छिन्न-भिन्न कर
उतर रही मिटा निशा
चमक उठी दिशा-दिशा !

नवीन मेघ की झड़ी
सुदूर व्योम से बरस पड़ी
नहा गया नगर
नहा गयी गली-गली
बहा गयी सभी
पुराण जीर्णता गली-सड़ी !

बरस रही नये विचार की झड़ी
नहा रहा मनुष्य विश्व का,
विकास-पंथ द्वार पर
खड़ा मनुष्य विश्व का,
कि खिल रहे समाज में
नवीन फूल,
सृष्टि ने बदल लिए दुकूल !

नव सुगन्ध से भरी हवा
सुदूर व्योम से
अशेष वेग ले
नवीन लोक का रहस्य विश्व को बता गयी !
अथक प्रयत्न शक्ति दे गयी !
उभर रहा समाज का नवीन शृंग !
बन रहा नया विधान
जन प्रधान
ध्वंस-सृष्टि
संग-संग !