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परिवार / प्रतिमा त्रिपाठी

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परिवार में कुल कितने खम्भे थे
ठीक- ठीक कुछ याद नहीं
पर हाँ! नीव में अम्मा थी
अम्मा अँधेरे का गीत थी
उजाले बोती थी
सारा घर सहेज रखती थी अकेले,
जादूगरनी थी अम्मा
ठठा कर हँसती थी तो
नमक के फ़व्वारे फूट पड़ते थे आंखों से।
अम्मा ख़ालिस मन थी।

दादी जब तक थीं
अम्मा अल्हड़ लड़की सी लगती थी
लेकिन कहानियाँ सुनाते-सुनाते
दादी ख़ुद एक दिन कहानी हो गई,
बाबा हमें कंधे पर बिठा गांव भर घुमाते,
बागीचे ले जाते, टॉफी- बिस्कुट दिलवाते,
वो भी एक रोज़ तस्वीर में बदल गए।

पिता हमेशा हमें पर्वत ही लगे
सख़्त, कठोर और अडिग
पर माँ कहती उनकी मिट्टी नर्म है।
हाँ! होंगें पर हमारे लिए विशाल पर्वत ही
एकदम एकाकी, शांत और अडोल।
जिनसे जन्में हम मीठी नदियों की तरह
जिनके साये में पनपे नन्हें पौध की तरह
जिनके आँगन खेले चिड़ियों की तरह।
साड्डा चिड़ियाँ द चंबा वे, बाबुला असा उड़ जाना

साड्डा चिड़िया दा ...
हल्दी चढ़ने के दिन तक दीदी
आंख के कसोरों में भर-भर आँसू
गाती रही ये गीत
दीदी रौनक थी घर की
उसकी हँसी खनकती दिनभर आँगन में
वो आँगन वाला नीम थी,
गर्मियों में घनी छाँव
बारिश में झूले की पेंग
और सर्दी भर गुनगुनी धूप बनी रहती थी।
चलती-फिरती डायरी थी दीदी,
 हमारी सब बातें अपने भीतर चुपचाप समेट लेती।
हमारी गलतियाँ छुपा जाती,
तारीफें मुहल्ले भर में बांटती रहती।
जाने कैसे वो अम्मा की भी सखा थी
और हमारी भी सहेली, जब कि
उम्र के अलग-अलग मोड़ पे थे हमसब
कोई तो तिलिस्म जानती थी वो।

सबसे बड़ा तिलस्म तो भाई जानता था।
जब स्कूल उसकी शिकायतों के लिए
पिता को बुलावा भेजता तो वो
अब्बास भाई को अपने पिता का
हिन्दू नाम रटाता और
प्रिंसिपल के सामने खड़ा कर देता।
वो बाबा के जनेऊ में लिपटे धर्म नहीं जानता था,
हर बार कान में लपेटने के बजाय
जनेऊ खूँटी पे टाँग घर से बाहर चला जाता।
वो इंसानियत जानता था।
जिस समय घर के भाई लोग
बहनों को घर के भीतर पर्दों में रखते थे,
वो हमें नये फैशन ट्रेंड समझाता।
वो केवल रक्षाबंधन नही था।
वो होली, दीवाली, दशहरा,
सब कुछ था हमारा ,
वो हमारा जीवन उत्सव था।

उन दिनों हमारे परिवार में पिता क्लॉज़ लगाते
तो माँ हमारी फरमाइशें पूरी करने वाली
सेंटा क्लॉज़ हो जाती
बहनें मौसम सजातीं तो
भाई त्योहार हो जाता।
जीवन जैसे कोई रंगमंच,
हर दिन कोई नई कहानी,
हर रोज़ नया अफसाना
और हम सब अलग-अलग किरदार
अपने चरित्र में डूबे हुए,
पात्र के साथ न्याय करते हुए
एक परिवार के साँचे में ढले
उम्र की गली से ..साथ-साथ गुज़रते रहे।