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बनके रहते हैं सिकंदर जो अंदर से डर जाते हैं / सुरेखा कादियान ‘सृजना’

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बनके रहते हैं सिकंदर जो अंदर से डर जाते हैं
इस दुनिया में क़ातिल भी अब खंजर से डर जाते हैं

घबराते हैं रोज़ यहाँ वो धर्मों के खो जाने से
मस्ज़िद से भी डरते हैं जो मंदर से डर जाते हैं

जिनके नीड़ उजड़ जाते हैं वक़्त की काली आंधी में
शाम ढले वो उड़ते पंछी अंबर से डर जाते हैं

उम्र बिता कर आते हैं जो अपनी रेगिस्तानों में
दरियाओं से सहमे लोग समंदर से डर जाते हैं

नफ़रत फैलाने से जिनकी रोज़ी रोटी चलती है
ऐसे लोग हमेशा अम्न के मंज़र से डर जाते हैं

चूर नशे में धन-दौलत के चेहरे पर चेहरे वाले
सच का गीत सुनाने वाले कलंदर से डर जाते हैं