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कस्तूरी गंध / उर्मिल सत्यभूषण

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तमाम उम्र भटकती रही
तलाश में ही बहकती रही
ओयसिस की तलाश थी
शाद्वल की आस थी
कितनी मारक प्यास थी
वीरान
रेगिस्तान में
चमकता जल बुलाता रहा
छलावा भटकाता रहा
छलवों की बारम्बारता
पछतावों की निस्सारता
से डसी गई, छली गई
टूटी नहीं, जुड़ी रही
थकी नहीं, रुकी नहीं
कस्तूरी गंध के पीछे
रही भागती पागल मृगी मैं
व्याकुल मृगी मैं
तृषाकुल मृगी मैं
मरूद्यान आखिर मिला था
मेरी जुस्तजू का सिला था
हरा-भरा था
नीलम जड़ा था
अमिय घट ले के
राह में खड़ा था
मरकत का द्वीप
जीवन में लहर गया
वक्त का टुकड़ा
ठिठका, ठहर गया
नीलम की झील में
डूबी उतराई मैं
रसप्लावित हुई मैं
सुरभि की बांहों में लिपटी
पल-पल को जीती रही
बूंद-बूंद पीती रही
अंजलि खुली नहीं
अमिय घट रीत गया
ठहरा हुआ वक्त बीत गया
बीत गया
खोई खोई सी, ठगी ठगी सी मैं
खड़ी रही विस्मित विमुग्धा मैं
चौंकी, देखा सपना तिरोहित था
ओयसिस वह
गायब था।
सामने फिर वहीं लम्बा
मरू बल खाता था
पर अब न थी रोती
भरी-भरी सी तृप्तामृगी थी
सिंचित पल्लवित, पुश्पित
तरू डाली थी
प्यास बुझा ली थी
समूचा ओयसिस मेरे भीतर
लहराता था।
कस्तूरी गंध अपनी थी जान गई
निज को पहचान गई
मन की गुफाओं में दीपशिखा जलने लगी
निज की पहचान से स्वयं दमकने लगी
अनहद नाद सुनती मदमाती खड़ी रही
इस काया कल्प पर
विस्मित विमुग्धा मैं
हवाओं सी हल्की सुरभित किरण
बनकर कुलाचे भरने लगी मैं
जीवन के मरू को फिर से
पार करने लगी मैं।