Last modified on 24 अक्टूबर 2019, at 13:00

व्यथा / विभा रानी श्रीवास्तव

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:00, 24 अक्टूबर 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विभा रानी श्रीवास्तव |अनुवादक= |स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

हाँथ में बंधीं घड़ी पर सरकता समय
और कामों को निपटाते हुए
गृहधुरी से बंधी स्त्री तेज़ी से चलाती हाँथ।
धड़कनों को धीमी गति से चलने को देती आदेश
और सुनती तेज़ कठोर आवाज में आदेश
"अंधेरा होने के पहले लौट आना"...

दोनों तरफ से खड़ी बस
बस! अपहरण की हो जैसे योजना।
साँस लेना दूभर!
गोधूलि के मृदुल झंकार की जगह
महसूस करते उन्नति के यांत्रिक शोर
आधे घन्टे की दूरी को डेढ़ घन्टे में तय करता ऑटो,

घर से निकलते समय वक़्त का हिसाब रखती
घर लौटते समय अनुत्तीर्ण होती जोड़-घटाव में,
पल-पल का रखवाला साथ नहीं होता।
वो ऊपर बैठा एक पक्षीय
फैसला करने में व्यस्त होता।

नवजात से ही उसे बड़े, बूढ़ों
परिवार/समाज के
सुनाते रहते हैं ,
"झुकी रहना..."

औरत के
झुके रहने से ही
बनी रहती है गृहस्थी
ड्योढ़ी के अंदर...

बने रहते हैं संबंध
पिता/भाई के नाक ऊँची रहते!

समझदारी किस लिंग में ज्यादा है
समझदारी
यानी
दर्द सहन कर हँस सकने की कलाकारी
याद करती ड्योढ़ी के अंदर का
जलियांवाला कांड
और बुदबुदाती
ना जाने हमारे लिए
देश कब आज़ाद होगा

जब तक वह खुद से चाहती है,
वरना झटके से हर जंजीर तोड़ उठती है।
पर वक्त को कैसे बाँधे आदेश पै
"अंधेरा होने से पहले लौट आना"...