Last modified on 20 अगस्त 2008, at 22:39

संयुक्त बनो / महेन्द्र भटनागर

Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:39, 20 अगस्त 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेन्द्र भटनागर |संग्रह= बदलता युग / महेन्द्र भटनागर }} <...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


अपने ही हाथों से अपने हमने आज कुल्हाड़ी मारी,
ग़लती पर ग़लती कर आज जुए में जीती बाज़ी हारी,
ले न सके हम वह जिसके पाने के युग-युग से अधिकारी;
दिल टूक-टूक होता है, यह निर्मम कितनी रे लाचारी !
मेरा देश बँटा है टुकड़ों में अनगिन,
समझूँ जन-जन की आज़ादी या दुर्दिन ?

आज़ादी हित हमने अगणित अविराम महा बलिदान किये,
जलियाँवाला कांड सहा, औ’ ममता के बंधन छोड़ दिये,
चुप कि कराह न उठने दी थी पीड़ा के सारे घाव सिये,
विपदाओं के बादल हँस-हँस हमने अपने ही शीश लिये,
पर, यह भारत माता तो आज अभागिन,
नाची है रणचण्डी आ क्रूर पिशाचिन !

सन उन्नीस-सौ-बयालीस उठाया जनता ने आन्दोलन,
‘भारत छोड़ो’ के नारे पर फाँसी झूले आ मुक्त-तरुण,
पशुबल की गोली से हिल काँप उठा था यह सम्पूर्ण गगन,
हम मतवाले थे आज़ादी के अविचल निर्भय सैनिक बन ;
जब जूझे दुश्मन से, हम मरते गिन-गिन !
विधवा होती जाती थीं, हाय सुहागिन !

जन-जन निर्भय हो अत्याचारी अंग्रेज़ों से जूझा था,
बच्चों, माता, पत्नी और पिता का डर न कहीं सूझा था,
वापस भग आने के कायरपन को न किसी से पूछा था,
इनने अपने बीहड़तम पथ को न किसी से झुक बूझा था,
निकली थीं बनकर अबलाएँ अभिशापिन,
कूदीं रण-ज्वाला में बनकर उन्मादिन !

‘लीगी’ वाले भारत को अगणित काफ़िर ‘नीरो’ सिद्ध हुए ;
जिनके ‘क़ौमी’ प्रचार से एके के सब पथ अवरुद्ध हुए,
अतएव प्रगतिशील प्रखर जनबल दुर्दम संस्कृत क्रुद्ध हुए ;
अच्छे और बुरे के फिर ऐसे विनष्टकारी युद्ध हुए
हावी होकर आया कटु य’ कसाईपन
मज़हब का नंगा नाच हुआ खन-खन-खन !

निर्दयी बनी दीवानी, भोली जनता औ’ गुमराह बनी,
आपस में काट रहे आज गले भूमि रक्त से हाय सनी,
ललकार उठा तब सरहद्दी सूबे में पठानसिंह ‘गनी’,
हर जन-तन्त्रा बसाने वाले की छाती फूली और तनी,
गांधी, खान, जवाहर रोकेंगे क्रन्दन,
आराजकता का हो जग से आज मरण !

दिन दूर न होगा जब नक्शे से ख़ुद पाकिस्तान हटेगा,
ऊँचे-ऊँचे भवन गिरेंगे शोषण, पूँजीवाद मिटेगा,
शक्तिमना अविजित उन्नत मेरा यह हिन्दुस्तान बनेगा,
हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सबका है यह देश, जगेगा,
गले मिलेंगे भेद भूल कर ये जन-जन
खिल जाएगा रे सूखा उजड़ा उपवन !

फिर हम देंगे जग को अपनी नूतन संस्कृति का ज्योति दान,
सत्य, अहिंसा, औ’ चर्खे का गाएंगे हम उन्मुक्त गान,
फैलेगी सारे लोकों में भारत की सुन्दर श्रेष्ठ शान,
उठो-उठो अब ओ मेरे बन्दी चिन्तित देश अमर महान !
अखंड, संयुक्त बनो ! मुक्त करो जीवन !
जर्जरता मिट जाये, आये नव-यौवन !