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सहज ही लुभाने लगी / प्रेमलता त्रिपाठी

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सुनो साथियों साधना बन सुखद यह,
सहज ही लुभाने लगी गीतिका।
किरण भोर-सी अब सरल गान बनकर,
मगन मन सुहाने लगी गीतिका।

रिदम बन गयी ताल सजकर नयी तो,
कहीं सज उठी संगिनी मापनी,
मिलाने लगी भाव गरिमा पुनीता,
प्रिया-सी रिझाने लगी गीतिका।

हृदय से जुड़ें जन मिटे भेद मन के,
सुनाती चली लोक हित रागिनी,
बिखर धूप-सी जो निखारे विधाएँ,
दिवा सम जगाने लगी गीतिका।

चली पथ सुहाना बनाने कली वह,
खिली वाटिका पुष्प पथ गामिनी,
सुहानी डगर पर बढ़ी जा रही जो,
सुरभि तन भिगाने लगी गीतिका।

लिये गर्भ अंकुर वहीं गीत रचना,
स्व आधार लेकर सजी भामिनी,
रसिक साधना रत लगन चातकी सम,
हृदय लौ लगाने लगी गीतिका।