Last modified on 21 अगस्त 2008, at 14:03

महानगर में / विजया सती

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:03, 21 अगस्त 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विजया सती }} मैं खुश हूँ कि राह चलते मुझ से बतिया लेती ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


मैं खुश हूँ

कि राह चलते

मुझ से बतिया लेती है हवा

ले नहीं उड़ती शब्दों को

पर अर्थ समझ लेती है !


जिन बंधी यात्राओं का सिलसिला

ख़त्म होने में नहीं आता

वहाँ भी ख़ुश हूँ मैं

कितने धीरज से सहती हैं रोज़ मुझे

ये काली लम्बी सड़कें !


फिर ये घर-आंगन

खपरैल की टूटी छत

बिख़र गया है यहीं मेरा

हास-उल्लास-आक्रोश

इन्होंने भी नहीं बनाया

किसी बात का बतंगड़ !


भाग-दौड़ के शहर की

औपचारिक व्यस्तताएँ निभाते

किन्हीं आँखों में उभरी है जब

आत्मीय पहचान

मैं भरपूर जी ली हूँ!