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सीता: एक नारी / प्रथम सर्ग / पृष्ठ 2 / प्रताप नारायण सिंह

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सीता विपिन में बैठकर पन्ने विगत के खोलतीं
तर्कों-वितर्कों पर सभी घटनाक्रमों को तोलतीं-

बनकर गरल जो घुल रहा, वह कौन सा अभिशाप है
बड़वाग्नि सा हिय मध्य जलता, कौन सा वह पाप है

उत्तर रहित ही प्रश्न यह, है सामने मेरे पड़ा
है कौन सा दुष्कर्म मेरा फलित हो सम्मुख खड़ा

क्यों घेर लाई है नियति, फिर वेदना की यामिनी
है आज क्यों वनवास फिर से, विवशता मेरी बनी

विधिनाथ से मेरी खुशी, पल भर नहीं देखी गई
किस कर्म का है दण्ड, वन रघुकुल-वधू भेजी गई

था घोर कितना पाप मेरा, दण्ड पाने के लिए
कम पड़ गए चौदह बरस, वनवास जो हमने किए

वन मध्य रह जो दानवों के वेदना मैंने सही
वह आज मन की दग्धता के सामने कुछ भी नहीं

मैं बंदिनी असहाय थी, पर प्रियतमा रघुवीर की
हूँ आज परित्यक्ता, कलंकित, मूर्ति कोई पीर की