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सीता: एक नारी / द्वितीय सर्ग / पृष्ठ 12 / प्रताप नारायण सिंह

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उनके लिए भी जो रहीं निर्दोष, होकर बन्दिनी
इस भ्रष्ट सामाजिक व्यवस्था के अनल ने हवि बनी

तपना पड़ेगा आग में, जब चाहते नरपति यही
मेरे समर्पण, त्याग की विधि ने लिखी परिणति यही

संकेत पाकर प्रज्वलित तब अग्नि लक्ष्मण के किया
उठती शिखाओं ने मुझे निज अंक में था भर लिया

पर जल न पाई अग्नि में मैं और जल सकती न थी
सहना बहुत कुछ था मुझे, यह वेदना अंतिम न थी

सब देव, दानव, मनुज, वानर अवनि औ' आकाश से
करने लगे जयकार मेरा भर नए उल्लास से

सब लोग श्रद्धा और आदर से मुझे तकने लगे
तुरही, नगाड़े, ढ़ोल चारो ओर ही बजने लगे

पर मैं मनोहत हो उठी, मन में वितृष्णा भर गई
व्यक्तित्व मेरा जल चुका था, प्रश्न सम्मुख थे कई

क्या बस परीक्षा ही कसौटी है यहाँ विश्वास की
क्या नारि-जीवन है कथा बस वेदना, संत्रास की

विद्रोह सा उठता हृदय में, प्रश्न था यह वेधता
अनिवार्य क्यों, करना प्रमाणित है अनल से शुद्धता

क्यों बस परीक्षित नारि होती, नर नहीं होता कभी
भुजबल पुरुष का क्यों कुकृत के पंक धो देता सभी

भगिनी, सुता, माता, बधू सम्बन्ध के इस बंध से
शोषित हुई नारी सदा ही पुरूष के छलछंद से

अबला बनी वह पुरूष-अत्याचार सब सहती रही
बस कोसती दुर्भाग्य को, खुद अश्रु बन बहती रही