सिलवटें उभरी हुई है चादरों पर
नींद ही आई न हमको स्वप्न आया ।।
स्वप्न वाली सीढियां चढ़ते उतरते
मैं थकन को ओढकर कुछ रुक गया था
दंडवत करना पड़ा जैसे स्वयं को
स्वयं के सम्मुख अधिक ही झुक गया था ।
दर्पणों में झांककर देखा स्वयं को
और मैं लगने लगा खुद को पराया ।।
रात को जब मैं अचानक जागता हूँ
रोज़ मेरे साथ चिंता जागती है
प्रश्न के हल पूछता तो हल न देती
प्रश्न के उत्तर मुझी से मांगती है ।
रात भर चिंता रही मुझको जगाती
रात भर इसको वहां मैने सुलाया ।।
कुछ दिनों से बात मन को मथ रही जो
सोचता था मैं छुपाकर रख रहा हूँ
जो न कह सकता स्वयं मन से कभी मैं
सिर्फ मन के द्वार जाकर रख रहा हूँ ।
जब हृदय पीड़ा अचानक पूछता है
सोचता हूँ मैं इसे किसने बताया ?
देखता हूँ मैं यहां उभरी लकीरें
लग रहा है एक चेहरा गढ़ रही है
करवटों के व्याकरण इतने अबूझे
सिलवटें ही सिर्फ इनको पढ़ रही है ।
पीर का जो चित्र था मैंने संजोया
आज जैसे हूबहू इसने बनाया ।।