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फिर लोकतन्त्र / मदन कश्यप

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बिकता सबकुछ है
बस, ख़रीदने का सलीका आना चाहिए
इसी उद्दण्ड विश्वास के साथ
लोकतन्त्र-लोकतन्त्र चिल्लाता है अभद्र सौदागर

सबसे पहले और सस्ते
जनता बिकेगी
और जो न बिकी तो चुने हुए बेशर्म प्रतिनिधि बिकेंगे
यदि वे भी नहीं बिके तो नेता सहित पूरी पार्टी बिक जाएगी
सौदा किसी भी स्तर पर हो सकता है

नैतिकता का क्या
उसे तो पहले ही
तड़ीपार किया जा चुका है
फिर भी ज़रूरत पड़ी तो थोड़ा वह भी ख़रीद लाएँगे बाज़ार से
और शर्मीली ईमानदारी
यह जितनी महँगी है
उतनी ही सस्ती
पाँच साल में तीन सौ प्रतिशत बाप की ईमानदारी बढ़ गई
बेटे की तो पूछो ही मत

सबसे सस्ता बिकता है धर्म
लेकिन उससे मिलती है इतनी प्रचुर राशि
कि कुछ भी ख़रीदा जा सकता है
यानी लोकतन्त्र भी ।

2018