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उज्जयिनी / महेन्द्र भटनागर

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कालिदास-विक्रम की नगरी उज्जयिनी को बारम्बार प्रणाम!

बहती जिसके अंतरतम में क्षिप्रा की मधु धारा पावन,
आठों प्रहर सजग रहता दृढ़ अविजित ‘महाकाल’का शासन,
जहाँ शून्य भी अनुभव करता प्रतिपल ‘मेघदूत’ की सिहरन,
जो धरती पर उतरी स्वर्गिक वैभवशाली नव अलका बन,
जिसके कण-कण में सम्मोहन, जिसके रवि-शशि-तारक
सकल ललाम !

कृष्ण-सुदामा का स्नेहांचल जिसके जन-मानस पर छाया,
कला लिए वासवदत्ता की प्रति रमणी की सुगठित काया,
पीर मछन्दर, योगि भर्तृहरि का फैला गुरु जीवन-चिंतन,
दुर्लभ जिसकी काली-उजली शीतल सुख-रातों का बंधन,
शांत, सत्य, शिव, सुन्दर जीवन, अक्षय नैसर्गिक शोभा
अभिराम !
1950