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अभियान (कविता) / महेन्द्र भटनागर

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(हज़ारों सुसज्जित सैनिकों का समूह। सभी हाथों में बन्दूकें लिए हुए हैं। सभी की आँखें लाल हैं। एक घुड़सवार तेज़ी से आता है और बिगुल बजाता है। बिगुल के बन्द होते ही स्टेज के पीछे से गान की सशक्त ध्वनि आती है। सैनिक सावधान होकर सुनते हैं।)

अभियान करो !
अभियान करो !


किरणें जैसे गिरतीं तम पर,
बहती धारा जैसे बढ़ कर,
वैसी दुर्दम दृढ़ शक्ति लगा
चिर शोषित जनता को आज जगा,
व्यूह रचो,
अभिनव व्यूह रचो !


भक्षक संस्कृति की छाती पर
फ़ौलादी आज क़दम रखकर
निर्भय हो
भीषण अभियान करो !
युग-युग की पीड़ित जनता का
त्राण करो !
दुख, दैन्य, निराशा, जड़ता, तम
जीवन का सब
आज हरो !
अभियान करो,
अभियान करो !

(स्वर बन्द हो जाता है। एक क्षण सन्नाटा रहता है। दो-एक सैनिक उत्साहित हो कह उठते हैं)


भरता साहस विद्युत जैसा
किसने आह्नान किया ऐसा !

 अन्य सैनिक —
क्या परिवर्तन की बेला ?
क्या नव-जीवन की बेला ?
बदलेगा क्या जीवन का क्रम ?

 :पार्श्व स्वर —
है सत्य,
नहीं यह किंचित भ्रम !
दूर क्षितिज पर
लपटें उठतीं !

(सभी सैनिक क्षितिज की ओर देखते हैं और स्वीकृति के स्वर में उत्तर देते हैं।)


हाँ, दीख रही हैं
बढ़ती-बढ़ती !
बादल मटमैले धूला के
दिशा-दिशा में फैल गये हैं !
आओ बढ़कर
अभियान करो,
हिम्मत से दृढ़ व्यूह रचो,
गतिरोधी ताक़त से
न डरो,
न डरो !
अभियान करो,
अभियान करो !
समवेत —
दुश्मन पर,
आज विपक्षी पर,
जन-द्रोही पर,
अभियान करो,
अभियान करो !
1945